जिंदगी की झंझावतों से लड़ना महिला भारोत्तोलक मीराबाई चानू से सीखें। क्रेडिट -ट्वीटर
मुसीबतों का सीना चीर बनीं योद्धा : जिंदगी की झंझावतों से लड़ना कोई मीराबाई चानू से सीखे
नई दिल्ली। जिंदगी की झंझावतों से लड़ना और जीवन वापसी का सबक सीखना है तो महिला भारोत्तोलक मीराबाई चानू से सीखें। तोक्यो ओलंपिक में उन्होंने शनिवार को 49 किग्रा वर्ग में रजत पदक जीतकर न सिर्फ अपना सपना साकार, बल्कि भारतीयों की सिर गर्व से ऊंचा कर दिया। मीराबाई ने रजत पदक जीतने के बाद कहा कि उनका सपना साकार हो गया है, लेकिन इसे साकार करने के लिए उन्हें हर दिन एक के बाद एक बाधाओं को पार करना पड़ा। मीराबाई ने तोक्यो ओलंपिक खेलों में रजत पदक के साथ भारत का पदक का खाता खोला और इससे पांच साल पहले रियो खेलों में अपने निराशाजनक प्रदर्शन को भी पीछे छोड़ने में कामयाब रहीं। पूर्व विश्व चैंपियन मीराबाई को इस पदक का बेसब्री से इंतजार था। सिलवर जीतने के बाद मीराबाई ने कहा, रियो ओलंपिक में ही फैसला कर दिया था कि टोक्यो में खुद को साबित करना है।
लकड़ियां काटते और जुटाते बीता बचपन
मीराबाई को पदक जीतने के बाद पूरे देश ने सिर-आंखों पर बैठा लिया है लेकिन यहां तक पहुंचने के लिए उन्हें गरीबी को हराना पड़ा और कई बाधाओं से उबरना पड़ा। इम्फाल से लगभग 20 किमी दूर नोंगपोक काकजिंग गांव की रहने वाले मीराबाई छह भाई-बहनों में सबसे छोटी हैं। उनका बचपन पास की पहाड़ियों में लकड़ियां काटते और एकत्रित करते तथा दूसरे के पाउडर के डब्बे में पास के तालाब से पानी लाते हुए बीता। मीराबाई के जज्बे का अंदाजा इस बात से लगता है कि एक बार जब उनका भाई लकड़ियां नहीं उठा पाया तो वह 12 साल की उम्र में दो किलोमीटर चलकर लकड़ियां उठाकर लाई।
बचपन में ही तय किया था खेलों से जुड़ेंगी
चानू ने अपने जीवन में काफी पहले फैसला कर लिया था कि वह खेलों से जुड़ेंगी। वह तीरंदाज बनने की राह पर थी लेकिन भाग्य को कुछ और मंजूर था। वह जिस दिन तीरंदाजी केंद्र गई, उस दिन केंद्र बंद था। मीराबाई इसकी जगह भारोत्तलकों को ट्रेनिंग करते हुए देखने चली गई। अपने की राज्य मणिपुर की दिग्गज भारोत्तोलक कुंजरानी देवी के बारे में पढ़ने के बाद वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनकी उपलब्धियों से प्रभावित हुई। भारोत्तोलक बनने की राह में हालांकि कई अड़चनें थी। वित्तीय संकट के कारण माता-पिता उनका समर्थन करने की स्थिति में नहीं थे। इसके अलावा ट्रेनिंग और स्कूल के समय में सामंजस्य बैठाने के लिए भी उन्हें जूझना पड़ता था। मीराबाई दो बस बदलकर अपने ट्रेनिंग केंद्र पहुंचती थी जो उनके गांव से 22 किमी दूर था।
2009 में राष्ट्रीय फलक पर दस्तक
मीराबाई ने अपना पहला राष्ट्रीय पदक 2009 में जीता। वह इसके बाद तेजी से आगे बढ़ीं और 2014 राष्ट्रमंडल खेलों में रजत पदक हासिल किया। रियो ओलंपिक 2016 में पदक की प्रबल दावेदार तब 21 बरस की मीराबाई का दिल उस समय टूट गया जब वह क्लीन एवं जर्क में अपने तीनों प्रयासों में नाकाम रहीं और इसके कारण उनका कुल वजन रिकॉर्ड नहीं हुआ। मुकाबले में हार-जीत अलहदा बात है। लेकिन, खिलाड़ी अपना खेल ही पूरा न कर पाए तो इससे उसका मनोबल टूटता है। 2016 ओलंपिक में मीरा के नाम के आगे 'डिड नॉट फ़िनिश' लिखा गया था । सपना टूटने पर चानू को गहरा सदमा लगा। उबरने के लिए उन्हें मनोवैज्ञानिक की मदद लेनी पड़ी, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। जोश और जज्बे के बूते धीरे-धीरे एक-एक मकाम हासिल करती गईं।
टूटे सपनों को जोड़ा और मेहनत के बूते 2017 में बनीं विश्व चैंपियन
मणिपुर की इस खिलाड़ी ने इस निराशा से उबरते हुए अगले साल 2017 विश्व चैंपियनशिप में खिताब जीता। वह इस प्रतिष्ठित प्रतियोगिता में दो दशक से अधिक समय में स्वर्ण पदक जीतने वाली पहली भारतीय भारोत्तोलक बनीं। कुछ महीनों बाद मीराबाई ने 2018 राष्ट्रमंडल खेलों में भी स्वर्ण पदक हासिल किया। मीराबाई को हालांकि अपनी उपलब्धियों के लिए कुर्बानियां भी देनी पड़ी। परिवार से दूर रहना उनके लिए आम बात है। विश्व चैंपियनशिप में हिस्सा लेने के कारण वह अपनी बहन की शादी में भी हिस्सा नहीं ले पाई।
जीवन में उतार चढ़ाव आते रहे, लगा बिखर जाएंगे सपने
लगातार दो स्वर्ण पदक के बाद खेल रत्न पुरस्कार से सम्मानित मीराबाई कमर की रहस्यमयी तकलीफ का शिकार हो गई जिससे 2018 में उनकी प्रगति प्रभावित हुई और वह उस साल एशियाई खेलों में भी हिस्सा नहीं ले पाई। उनकी बीमारी से डॉक्टर भी हैरान थे क्योंकि कोई भी उनकी कमर में दर्द का असल कारण नहीं पता कर पाया। इसके कारण मीराबाई एक साल बाद ही ट्रेनिंग दोबारा शुरू कर पाई और उन्होंने अच्छी वापसी की। वह 2019 एशियाई और विश्व चैंपियनशिप में पदक के बेहद करीब पहुंची। ओलंपिक पदक जीतने के लिए प्रतिबद्ध मीराबाई ने लगातार सुधार किया और कोरोना वायरस महामारी भी उनके हौसले को नहीं तोड़ पाई।
पांच साल में केवल पांच दिन घर पर रहीं
ओलंपिक में रजत पदक जीतकर भारतीय भारोत्तोलन में नया इतिहास रचने वाली मीराबाई चानू ने शनिवार को कहा कि वह अब अभ्यास की परवाह किये बिना अपने परिजनों के साथ छुट्टियां बिता सकती हैं क्योंकि पिछले पांच वर्षों में वह केवल पांच दिन के लिये मणिपुर स्थित अपने घर जा पायी। चानू ने कहा, ''पिछले पांच वर्षों में मैं केवल पांच दिन के लिये घर जा पायी थी। अब मैं इस पदक के साथ घर जाऊंगी।
उनका परिवार नोंगपोक काकचिंग गांव में रहता है जो इंफाल से लगभग 20 किमी दूर है। इस भारोत्तोलक ने कहा, ''अब मैं घर जाऊंगी और मां के हाथ का बना खाना खाऊंगी। चानू ने खुलासा किया कि रियो ओलंपिक खेलों में असफल रहने के बाद उन्होंने अपनी ट्रेनिंग और तकनीक पूरी तरह से बदल दी थी ताकि वह तोक्यो में अच्छा प्रदर्शन कर सके। चानू ने भारतीय खेल प्राधिकरण (साइ) द्वारा आयोजित वर्चुअल संवाददाता सम्मेलन में कहा, ''ओलंपिक पदक जीतने का मेरा सपना आज पूरा हो गया। मैंने रियो में काफी कोशिश की थी लेकिन तब मेरा दिन नहीं था। मैंने उस दिन तय किया था कि मुझे तोक्यो में खुद को साबित करना होगा।
रियो की विफलता के बाद दबाव में थीं
मीराबाई को पांच साल पहले रियो में भी पदक का प्रबल दावेदार माना जा रहा था लेकिन वह महिलाओं के 48 किग्रा भार वर्ग में वैध वजन उठाने में असफल रही थी। उन्होंने कहा, ''मुझे उस दिन काफी सबक मिले थे। मेरी ट्रेनिंग और तकनीक बदल गयी थी। हमने उसके बाद काफी कड़ी मेहनत की। चानू ने कहा, ''रियो में मैं उस दिन काफी निराश थी। मुझ पर काफी दबाव था और मैं नर्वस हो गयी। मैं कई दिनों तक कुछ समझ नहीं पायी लेकिन इसके बाद कोच सर और महासंघ ने मुझे दिलासा दिया कि मैं क्षमतावान हूं। मुख्य कोच विजय शर्मा ने भी खुलासा किया कि रियो के निराशाजनक प्रदर्शन के बाद उन पर काफी दबाव था।
उन्होंने कहा, ''रियो की असफलता के बाद मुझ पर भी काफी दबाव था। हम सबसे महत्वपूर्ण प्रतियोगिता में नाकाम रहे थे। हमसे तब भी पदक की उम्मीद की जा रही थी। तोक्यो में स्वयं को साबित करने के लिये प्रतिबद्ध चानू और शर्मा ने इसके बाद इस मणिपुरी खिलाड़ी की ट्रेनिंग और तकनीक में काफी बदलाव किये। शर्मा ने कहा, ''इसके बाद हमने अभ्यास के तरीकों में काफी बदलाव किये। इसके बाद हमने 2017 में विश्व चैंपियनशिप और राष्ट्रमंडल खेलों में अच्छे परिणाम देखे। उसने पिछले छह वर्षों में अभ्यास के अलावा कुछ नहीं किया है।
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